हरिहर तेरी रीत निराली,
अंबर धरती और हरियाली,
दिन में सूरज, रात को चंदा,
इस बगियन के है दो माली,
हरिहर तेरी रीत निराली
जंगल जंगल फूल बिछाये,
काँटों से फिर उन्हें बचाए,
एक रुत आये, एक रुत जाए,
अब मुरझाए, तब खिल जाए,
सब रंगों का खेल रचाये,
ऊपर मेघधनुष भी बनाये,
एक भी कोना रहे न खाली,
हरिहर तेरी रीत निराली
नर-नारी बीच प्रेम जगाये,
प्रेम के भी तू बीज उगाए,
अंकुर फूटे तब समझाये,
चक्कर तू ये कैसे चलाये,
फसल पके दुनिया में आये,
लालन पालन उसे कराये,
थप्पड़ कभी, कभी दे ताली,
हरिहर तेरी रीत निराली
कल, आज और कल को बनाये,
तीनों काल पे तू ही छाये,
भेद न इस का हमें बताये,
कल की छाया आज पे आये,
आज की माया कल पे ढाये,
पाप पुन्य में करम गिनाये,
चमड़ी गोरी हो या काली,
हरिहर तेरी रीत निराली
- 'बेशुमार' Bhavesh N. Pattni
फरवरी २००९
Great, Bhavesh. I had heard this poem at Kumarbhai's home earlier. दुःख सुख की हरेक माला कुदरत ही पिरोती है, हाथों की लकीरों में यह जागती सोती है.
ReplyDeleteजहां भी हो मिटते निशाँ, वही जाके पाँव यह धरे. आनंद बक्षी- कुदरत Snehal
Good one Bhavesh. Keep penning down the thoughts and some more good poems would come out of it.
ReplyDeleteKeep posting. Ranna
Thanks Snehalbhai and Rannaben.
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